Share this
वीर प्रसूता मेवाड की धरती राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है। राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है। उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण के अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है।
मेवाड अपनी समृद्धि, परम्परा, अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है। स्वतन्त्रता की अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है। मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं।
मेवाड़ राज्य की सबसे प्राचीन रियासत थी । यहां गुहिल वंश ने शासन किया । इस वंश का संस्थापक गुहिल था ।
✔️ नेणसी री ख्यात में गुहिलों की 24 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । प्रारम्भ में इस वंश की राजधानी नागदा थी तथा बाद में चित्तौड़गढ़ बनी । मेवाड़ के गुहिल वंश की जानकारी गुहिल (गुहादित्य) से प्रारम्भ होती है । गुहिल के पिता का नाम शिलादित्य था तथा माता का नाम पुष्पावती था । कर्नल टॉड के अनुसार गहिल वंश की आठवी पीढी में हए नागादित्य से भीलों ने ईडर का राज्य छिन लिया था । नागादित्य का पुत्र बप्पा मेवाड़ का पराक्रमी शासक हुआ | बप्पा ने हरित ऋषी के आर्शिवाद से मोर्य राजा मान से चित्तौड़गढ को विजय किया ।
✔️ बप्पा की मृत्यु नागदा में हुई, यहां आज भी बप्पा का समाधिस्थल स्थित है ।
मेवाड में गहलोत राजवंश – बप्पा ने सन 734 ई० में चित्रांगद गोरी परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था। इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था –
रावल बप्पा ( काल भोज ) – 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
सामंत सिंह – 1172 – 1179 ई०
(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया। )
जैत्र सिह (1213 से 1252) (Jaitr singh)
जैत्र सिंह के समय मेवाड़ को पहली बार तुर्की आक्रमण का सामना करना पड़ा । जैत्र सिंह ने इल्तुतमिश की सेना को पराजित किया । जैत्र सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र तेज सिंह मेवाड़ का शासक बने । तेजसिंह की पत्नी जयत्तल देवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्व नाथ मन्दिर का निर्माण करवाया ।तेज सिंह की मृत्यु के बाद समर सिंह मेवाड़ का उत्तराधिकारी हुए ।
समर सिंह – 1273 – 1301 ई०
(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुए और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गए । नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं। समर सिह के दो पुत्र थे । रतन सिंह व कुंभकर्ण । कुंभकर्ण नेपाल चला गया तथा वहां गुहिल वंश की स्थापना की ।
रतन सिंह ( 1301-1303 ई० )
– इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। इस दौरान रतन सिंह के दो वीर सेना नायक गोरा एवं बादल युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए| अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम बदल कर अपने पुत्र खिज्र खाँ के नाम पर खिज्राबाद कर दिया | खिज्र खाँ 1313 तक यहां रहा तथा बाद में उसने यह दुर्ग जालौर के चौहान शासक कान्हड़देव के भाई मालदेव मुछाणा को सौप दिया । नोट :- इस युद्ध में सीसोदा का सामन्त लक्ष्मण सिंह अपने सात पुत्रों के साथ युद्ध में लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुए
महाराणा हमीर सिंह ( 1326 – 1364 ई० )
– हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की । इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।
हम्मीर को मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है । इनके समय से मेवाड़ के शासक अपने नाम के पहले महाराजा शब्द का प्रयोग करने लगे । हम्मीर को कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ती में “विषम घाटी पंचानन’ की संज्ञा दी गई । महाराणा हम्मीर लक्ष्मण सिंह का पौत्र एवं अरी सिंह के पुत्र थे । हम्मीर ने 1326 में चित्तौडगढ को मालदेव के उत्तराधिकारी बनवीर से छीन लिया तथा सिसोदिया वंश की स्थापना की ।✔️ हम्मीर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्र सिंह मेवाड़ का शासक बने । क्षेत्र सिंह ने सन् 1364 से 1382 तक शासन किया । क्षेत्र सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र लक्ष सिंह (लाखा) शासक बने, जिसका शासन काल 1382 से 1421 है । लाखा के समय जावर में चाँदी की खान निकली थी, तथा लाखा के समय ही छितर (पिच्छु) नामक बंजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया था । \✔️ मारवाड़ के शासक राव चुड़ा की पुत्री एवं रणमल की बहन हंसा बाई के विवाह का प्रस्ताव मेवाड़ के शासक लाखा के पुत्र चुंडा के लिये आया था, किन्तु हंसा बाई का विवाह लाखा के साथ सम्पन्न हुआ । जिससे मोकल नामक पुत्र की प्राप्ति हुई ।
नोट :- राव चुड़ा को “मेवाड़ का भीष्म पितामह’ का कहा जाता है ये जीवनभर अविवाहित रहे ये मोकल के संरक्षण नियुक्त हुए |✔️ लाखा की मृत्यु के बाद उसके पुत्र महाराणा मोकल ने 1421 से 1433 तक शासन किया ।✔️ मोकल ने चित्तौड़गढ़ के समधिश्वर मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाया । इस मन्दिर का निर्माण परमार राजा भोज ने करवाया था ।महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 – 1382 ई० )
महाराणा लाखासिंह ( 1382 – 1421 ई० )
– योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।
महाराणा मोकल ( 1421 – 1433 ई० )
महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1469 ई० ) – इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं। कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है. इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।
✔️ कुम्भा का जन्म 1403 में मोकल की परमार रानी सोभाग्य देवी के गर्भ से हुआ था । ये 30 वर्ष की अवस्था में मेवाड़ के शासक बने ।
✔️ सन् 1437 में कुम्भा ने मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी को पराजित किया । इस युद्ध को सारंगपुर युद्ध के नाम से जाना जाता है ।
✔️ महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ के 84 दुर्गो में से 32 दुर्गो का निर्माण करवाया । इस कारण इन्हे स्थापत्य कला का जनक कहा जाता है ।
✔️ कुम्भा ने कुम्भलगढ़ दुर्ग, अचलगढ़ दुर्ग, बसन्तगढ़, भोमट दुर्ग का निर्माण करवाया ।
✔️ महाराणा कुम्भा ने सारंगपुर युद्ध में विजय के उपरान्त चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया । इसका निर्माण कार्य 1438 में प्रारम्भ हुआ तथा 1448 में समाप्त हुआ ।
✔️ इसके सुत्रधार जेता तथा इसके पुत्र नापा, पुमा तथा पुजा थे । डॉ. गर्टज ने इसे “भारतीय मुर्तिकला का विश्वकोष” कहा है । इसे विष्णु स्तम्भ भी कहा जाता है ।
✔️ महाराणा कुम्भा ने मीरां मन्दिर, रणकपुर मन्दिर तथा कुम्भश्याम मन्दिर का निर्माण करवाया था ।
नोट :- सन् 1439 में रणकपुर के मन्दिरो का निर्माण धरणक शाह द्वारा करवाया गया । इसका शिल्पी देपा था । कुम्भा ने इसके लिये भूमि दान में दी थी । ये मन्दिर पाली जिले में मथाई नदी के तट पर स्थित है ।
✔️ महाराणा कुम्भा की पुत्री रमा बाई को संगीत के क्षेत्र में वागीश्वरी के नाम से जाना जाता है ।
✔️ महाराणा कुम्भा द्वारा संगीतराज, रसिकप्रिया, सुडप्रबन्ध चण्डीशतक की टीका कामराज रतीसार, संगीत मीमांसा आदि ग्रन्थों की रचना की गई। ✔️ महाराणा कुम्भा ने हालगुरू, राजगुरू, दानगुरू, शैलगुरू, परमगुरू, महाराजधिराज आदि उपधियां धारण की ।
नोट :- महाराणा कुम्भा के काल में मण्डन नामक शिल्पी निवास करते थे | मण्डन मूलतः गुजरात के मंडन द्वारा लिखित ग्रन्थ है – प्रसाद मण्डन, रूप मण्डन, वास्तुसार, राजवल्लभ आदि ।
✔️ नाथा मण्डन का छोटा भाई था । जिसने “वास्तु-मंजरी” नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है । गोविन्द मण्ड़न का पुत्र था जिसने कलानीधि उद्धार, धोरणि द्वार, दीपीका नामक ग्रन्थ लिखे है ।
✔️ महाराणा कुम्भा की मृत्यु के बाद रायमल शासक बना । महाराणा कुम्भा की हत्या उसके पुत्र उदा ने की थी ।
✔️ रायमल की रानी श्रृंगार देवी ने घोसुण्डी बावड़ी का निर्माण करवाया था । श्रृंगारदेवी मारवाड़ के शासक राव जोधा की पुत्री थी । रायमल के 11 रानीयां थी जिनसे 13 पुत्र एंव 2 पुत्रीयाँ हुई ।
✔️ राणा सांगा रायमल के तीसरे पत्र थे जिन्हे संग्राम सिंह प्रथम के नाम से भी जाना जाता है ।
महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 – 1473 ई० )
– महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल, जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली। अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।
महाराणा रायमल ( 1473 – 1509 ई० )
– सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया। इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया। लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।
महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 – 1527 ई० )
– महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक थे, जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे, जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ। महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे। इनका इतिहास स्वर्णिम है। जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।
✔️ महाराणा सांगा को सेनिकों का भग्नावेश तथा अन्तिम हिन्दुपत शासक कहा जाता है ।
✔️ सन् 1517 में महाराणा सांगा तथा दिल्ली के इब्राहिम लोदी के मध्य खातोली का युद्ध लड़ा गया । इस युद्ध में महाराणा सांगा की विजय हुई । नोट :- रियासत काल में यह स्थान बूंदी जिले में आता था । वर्तमान में खातोली कोटा जिले में है । सन् 1518 में महाराणा सांगा ने धोलपुर अथवा बाड़ी के युद्ध में इब्राहिम लोदी के सेनापति मिया हुसैन तथा मक्खन खाँ को पराजित किया । सन् 1519 में महाराणा सांगा ने गागरोन युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी द्वितीय को पराजित किया ।
✔️ 11 मार्च 1527 को महाराणा सांगा तथा बाबर के मध्य खानवा का युद्ध लड़ा गया था । इस युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय हुई । इस युद्ध के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की ।
नोट :- वर्तमान में खानवा नामक स्थान भरतपुर जिले के रूपवास तहसील में गम्भीर नदी के तट पर स्थित है ।
✔️ युद्ध में बाबर की विजय का श्रेय उसकी तुलगमा युद्ध पद्धती उसके तोपखाने तथा उसके कुशल सेनापतित्व को दिया जाता है ।
✔️ 30 जनवरी 1528 को महाराणा सांगा के सामन्तों ने उसे विषपान करा दिया जिससे महाराणा सांगा की मृत्यु हो गई।
✔️ महाराणा सांगा का समाधिस्थल वर्तमान भीलवाड़ा जिले के माण्डलगढ़ कस्बे में स्थित है ।
✔️ महाराणा सांगा ने अपनी पत्नी रानी कर्मावती तथा उसके दो पुत्र उदयसिंह तथा विक्रमादित्य को रणथम्भोर का दुर्ग तथा 60 लाख रूपये की जागीरी प्रदान की थी ।
✔️ महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ के इतिहास में 1528 से 1530 तक रतन सिंह द्वितीय ने शासन किया । रतन सिंह द्वितीय जोधपुर की रानी राजकमारी धनबाई का पुत्र था ।
महाराणा रतन सिंह ( 1528 – 1531 ई० )
महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 – 1534ई० )
महाराणा उदय सिंह ( 1537 – 1572 ई० ) –
मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना, फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली.
✔️ सन् 1531 में राणा रतन सिह द्वितीय की निःसंतान मृत्यु हो गई । इसके उपरान्त 1531 से 1536 तक राणा विक्रमादित्य ने शासन किया तथा करमावती इसकी संरक्षिका बनी ।
✔️ विक्रमादित्य के काल में 1535 में गुजरात के बाहदुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया इस समय कर्मावती ने हुमायु को राखी भेजकर सहायता मांगी थी, किन्तु हुमायु परिस्तिथियों के चलते कर्मावती की सहायतार्थ नही आ सका। रानी कर्मावती ने अपने दोनों पुत्र उदयसिंह तथा विक्रमादित्य को उनके ननिहाल बूंदी भेज दिया था तथा स्वयं ने 1300 स्त्रियों के साथ जोहर किया ।
✔️ सन् 1536 में दासी पुत्र बनवीर (पुतलदे का पुत्र) ने महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी तथा उदयसिंह को भी मारने का प्रयास किया। इस समय इतिहास प्रसिद्ध पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन की बली देकर उदय सिंह को बचा लिया तथा कुम्भलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा के यहां भेज दिया ।
✔️ सन् 1537 में कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही उदयसिंह का राज्यभिषेक हुआ । उदयसिंह ने 1540 में बनवीर को पराजित किया तथा अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया । उदय सिंह ने 1559 में उदयपुर शहर की नींव रखी ।
✔️ उदयसिंह के काल 1567-68 में अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया । उदयसिंह चित्तौड़गढ़ दुर्ग की रक्षा का भार जयमल एवं फत्ता को सोपकर गिरवा की पहाड़ियों पर चले गये । जयमल और फत्ता युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए तथा राजपुत रानियों ने जौहर रचा । यह मेवाड़ के इतिहास का तीसरा साका था ।
✔️ 28 फरवरी 1572 को उदय सिंह का गोगुन्दा में देहान्त हो गया ।
नोट :- अकबर ने जयमल और फत्ता की वीरता से प्रसन्न होकर आगरा किले के द्वार पर हाथियों पर सवार पाषाण मुर्तियां स्थापित करवाई ।
महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० )
– इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था। राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे, कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें। धीरे – धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया। इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा।
परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ। जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये। परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला, लेकिन हार नहीं मानी। ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता की।अन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी। जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया। 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।
✔️ महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 में जयवन्ता बाई के गर्भ से हुआ था । वनवासी महाराणा प्रताप को कीका नाम से सम्बोधित किया करते थे। ✔️ उदयसिह ने भटयाणी रानी के प्रभाव के कारण महाराणा प्रताप के स्थान पर अपने पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित किया था । लेकिन प्रताप समर्थक सामन्तों ने 28 फरवरी 1570 को गोगुन्दा में महाराणा प्रताप का राज्यभिषेक कर दिया ।
✔️ सन् 1583 में दाताणी के युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गई ।
✔️ 1570 में अकबर अजमेर स्थित दरगाह में जियारत करने आया था इस समय नागौर दरबार का आयोजन किया गया, इस दरबार में राजस्थान के अधिकांश राजपत शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा मुगलों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिये । लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर का विरोध जारी रखा ।
नोट :- नागौर दरबार का महत्व इसलिये है कि इसमें अधिकांश राजपुत शासकों ने अकबर की अधिनता स्वीकार कर ली इस समय अकबर ने नागौर में शुक्र तालाब का निर्माण करवाया ।
✔️ अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को समझाने हेतु भेजे चार शिष्ट मण्डलों का क्रम इस प्रकार है ।
- जलाल खाँ कोराची
- मानसिंह
- भगवन्त दास
- टोडरमल
✔️ 18 जुन 1576 को प्रसिद्ध हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया इस युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व हिन्दु शासक आमेर के राजा मानसिंह ने किया जबकि महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व हाकिम खाँ सुरी ने किया ।
✔️ डॉ. गोपी नाथ शर्मा के अनुसार “यह एक अनिर्णायक युद्ध था, इस युद्ध के दौरान अकबर अपने तीनों उद्देश्यों में असफल रहा’ ।
नोट :- हल्दीघाटी के युद्ध के समय अकबर का इतिहास कार बदायुनी उपस्थित था ।
✔️ अबुल फजल ले हल्दीघाटी के युद्ध को “खमनोर का युद्ध” कहा है जबकि बदायुनी ने इसे “गोगून्दा का युद्ध” काह है । कर्नल टॉड़ ने इसे “हल्दीघाटी का युद्ध” एवं “मेवाड़ की थर्मोपल्ली” कहा है ।
✔️ आसफ खाँ ने इस युद्ध को जैहाद की संज्ञा दी है । एवं आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव ने हल्दीघाटी के युद्ध को “बादशाह बाग’ कहा है । 3 अप्रेल 1578 को अकबर के सेनापति शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया था, यदि इस बार को विस्मृत कर दिया जाये तो यह दुर्ग अजेय रहा है ।
✔️ 19 जनवरी 1597 को चावण्ड़ के पास बाड़ोली गाँव में महाराणा प्रताप का देहान्त हो गया । यहां महाराणा प्रताप का स्मारक स्थित है ।
✔️ सन् 1528 में हुए दिवेर के युद्ध को “मेवाड़ का मेराथन’ कहा जाता है ।
✔️ महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अमर सिह प्रथम ने 1597 से 1620 तक शासन किया
महाराणा अमर सिंह -(1597 – 1620 ई० )
- – प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए। अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है। वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।
✔️ 5 फरवरी 1615 को अमरसिह तथा जहांगीर के मध्य सन्धि सपन्न हुई ।
महाराणा कर्ण सिद्ध ( 1620 – 1628 ई० ) –
इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।
✔️ सन् 1620 से 1628 तक करण सिंह ने शासन किया । करण सिह ने पिछोला झील पर जग मन्दिर महलों का निर्माण प्रारम्भ करवाया । जिसे उसके पुत्र जगत सिंह प्रथम ने पुरा करवाया ।
महाराणा जगत सिंह ( 1628 – 1652 ई० )
✔️ सन् 1628 से 1652 तक महाराणा जगत सिंह प्रथम ने शासन किया । इसके काल में शाहजहाँ के एक आदेश पर प्रतापगढ की जागीरी मेवाड़ से पृथक कर दी गई । इन्होने 1652 में जगदीश मन्दिर तथा नागर शैली में उदयपुर में विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया ।
महाराणा राजसिंह ( 1652 – 1680 ई० )
– यह मेवाड के उत्थान का काल था। इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी। इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था। इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन, राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई। जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके। महाराणा के प्रयास से अंबेर, मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया। वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा। अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया। राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया.✔️ जगत सिंह प्रथम की मृतयु के बाद 1652 से 1680 तक राजसिंह ने शासन किया । राजसिंह ने किशनगढ़ के शासक रूप सिंह की पुत्री चारुमति से 1660 में विवाह किया । इस विवाह से ओरंगजेब राजसिंह से नाराज हो गया
राजसिह ने 1662 से 1676 के मध्य गोमती नदी के पानी को रोककर राजसमन्द झील का निर्माण करवाया । राजसिंह ने उदयपुर में अम्बा माता तथा कांकरोली में द्वारिकाधीश मन्दिर का निर्माण करवाया तथा सिहाड़ गाँव (नाथद्धारा) में श्रीनाथ जी की प्रतिमा को प्रतिष्ठापित करवाया। इन्होने अपने नाम पर राजनगर कस्बा बसाया ।
महाराणा जय सिंह ( 1680 – 1698 ई० ) –
जयसमंद झील का निर्माण करवाया.✔️ सन् 1680 से 1698 तक महाराणा जयसिंह ने शासन किया । इन्होने ढेबर झील का निर्माण करवाया ।
महाराणा अमर सिंह द्वितीय ( 1698 – 1710 ई० )
इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।✔️ सन् 1698 से 1710 तक अमर सिह द्वितीय ने शासन किया । इस समय मेवाड़ मारवाड़ तथा आमेर रियासतों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर एकता स्थापित हुई ।
महाराणा संग्राम सिंह ( 1710 – 1734 ई० ) –
महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे। इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।
✔️ सन् 1710 से 1734 तक संग्राम सिंह द्वितीय ने शासन किया । इन्होने उदयपुर सहेलियों की बाड़ी का निर्माण करवाया । इन्होने मराठों के विरूद्ध राजपुतों को संगठित करने के लिये हुरड़ा सम्मेलन की योजना बनाई किन्तु इसी समय इनकी मृत्यु हो गई ।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 – 1751 ई० ) –
ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे। इन्होने जलमहल बनवाया। शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी.✔️ सन् 1734 से 1778 तक जगत सिंह द्वितीय ने शासन किया । इनके समय में मेवाड़ में मराठों का प्रथम प्रवेश हुआ । और मराठों के द्वारा मेवाड़ से कर वसुला गया । इनके काल में 17 जूलाई 1734 को मराठों के आक्रमणों को रोकने के लिये अजमेर के हुरड़ा नामक स्थान पर सम्मेलन बुलाया गया ।
✔️ वर्तमान में यह स्थान (हुरड़ा) भीलवाड़ा जिले में स्थित है । हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड़ के जगत सिंह द्वितीय ने की थी । यह सम्मेलन अपने उद्देश्य में पुरी तरह असफल रहा ।
✔️ जगत सिह द्वितीय की मृत्यु के बाद भीम सिंह मेवाड़ के शासक बने इन्होने 1818 में अंग्रेजों के साथ सन्धि कर लीमहाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 – 1754 ई० )
महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 – 1761 ई० )
महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 – 1773 ई० )
महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 – 1778 ई० ) – इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।
महाराणा भीमसिंह ( 1778 – 1828 ई० ) – इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया। 13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया। अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया।मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल, कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी, वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था। प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी। महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे\ निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे। इनमें व्यवहारिकता का आभाव था।ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।
इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया । जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा । यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है। धन्य है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये।